जिस पहाड़ को सिर्फ “पुराना और बेकार” समझा गया, वही उत्तर भारत को रेगिस्तान बनने से अब तक बचाता रहा—यह तथ्य दस्तावेज़ों और भूवैज्ञानिक अध्ययनों से सामने आया है।
जांच में यह भी सामने आया कि जिन इलाकों में अरावली काटी गई, वहीं पानी, हवा और तापमान सबसे पहले बिगड़े—यह महज संयोग नहीं, बल्कि सीधा कारण-परिणाम है।
जांच में सामने आया है कि अरावली पर्वतमाला केवल एक भू-आकृतिक संरचना नहीं, बल्कि उत्तर भारत के पर्यावरणीय संतुलन की रीढ़ है। भूवैज्ञानिक रिकॉर्ड बताते हैं कि अरावली की उम्र 150 से 250 करोड़ वर्ष के बीच मानी जाती है, जिससे यह दुनिया की सबसे प्राचीन पर्वतमालाओं में शामिल होती है। यह पर्वतमाला गुजरात के पालनपुर से लेकर दिल्ली तक फैली हुई है और राजस्थान, हरियाणा व दिल्ली के बड़े भूभाग को कवर करती है।
अध्ययनों से यह स्पष्ट हुआ है कि अरावली थार रेगिस्तान और गंगा के मैदानी इलाकों के बीच एक प्राकृतिक अवरोध का काम करती है। जहां-जहां अरावली की पहाड़ियां कमजोर हुईं या समाप्त की गईं, वहां रेगिस्तानी प्रभाव, धूल भरी आंधियां और भूमि का क्षरण तेजी से बढ़ा। विशेषज्ञों का मानना है कि अरावली के क्षरण से पश्चिमी शुष्क हवाओं को खुला रास्ता मिल गया।
जांच के दौरान यह तथ्य भी सामने आया कि अरावली क्षेत्र भूजल रिचार्ज का एक बड़ा केंद्र है। यहां की चट्टानें वर्षा जल को रोककर जमीन के भीतर पहुंचाती हैं। जिन इलाकों में अरावली सुरक्षित है, वहां आज भी पारंपरिक कुएं और जलस्रोत जीवित हैं, जबकि पहाड़ कटते ही आसपास के क्षेत्रों में जल स्तर खतरनाक रूप से गिरा।
वन विभाग और पर्यावरण रिपोर्टों से यह भी उजागर हुआ है कि अरावली जैव विविधता का महत्वपूर्ण केंद्र रही है। यहां तेंदुआ, सियार, नीलगाय, लोमड़ी, सैकड़ों पक्षी प्रजातियां और दुर्लभ वनस्पतियां पाई जाती थीं। शहरी विस्तार और खनन गतिविधियों के कारण इनका प्राकृतिक आवास लगातार सिमटता गया।
सबसे गंभीर तथ्य अवैध खनन से जुड़ा सामने आया है। जांच में पाया गया कि कई इलाकों में दशकों तक नियमों को दरकिनार कर पहाड़ काटे गए। पत्थर, ग्रेवल और खनिज निकालने के नाम पर पूरी पहाड़ियां खत्म कर दी गईं। इसके बाद उन्हीं क्षेत्रों में फार्महाउस, कॉलोनियां और व्यावसायिक निर्माण खड़े कर दिए गए।
सुप्रीम कोर्ट और पर्यावरण मंत्रालय के आदेशों में अरावली को संरक्षित क्षेत्र मानने की बात कही गई, लेकिन जमीनी स्तर पर इन निर्देशों का पालन सीमित रहा। दस्तावेज़ बताते हैं कि कई जगहों पर अरावली को राजस्व भूमि बताकर उसके संरक्षण से बचने की कोशिश की गई।
पर्यावरण विशेषज्ञों की रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि यदि अरावली का मौजूदा क्षरण नहीं रुका, तो दिल्ली-एनसीआर और आसपास के इलाकों में तापमान वृद्धि, जल संकट और वायु प्रदूषण स्थायी समस्या बन सकते हैं। यह केवल पर्यावरण का मुद्दा नहीं, बल्कि भविष्य की पीढ़ियों के अस्तित्व से जुड़ा सवाल है।
जांच का निष्कर्ष साफ है—अरावली को नुकसान पहुंचाना सिर्फ पहाड़ काटना नहीं, बल्कि उत्तर भारत की प्राकृतिक सुरक्षा को कमजोर करना है। विकास और संरक्षण के बीच संतुलन नहीं बनाया गया, तो आने वाले वर्षों में इसका असर केवल रिपोर्टों तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि आम जनजीवन पर सीधे दिखाई देगा।
यह कहानी किसी कल्पना पर नहीं, बल्कि सामने आए तथ्यों, अध्ययनों और जमीनी हालात पर आधारित है—और यही अरावली की असली, अनदेखी सच्चाई है।